मुसलमानो के लिए जिस तरह अल्लाह की ज़ात और सिफ़ात का जानना ज़रूरी है के किसी दिनी ज़रूरी बात के इंकार करने या मुहाल के साबित करने से यह काफिर न हो जाये इसी तरह यह जानना भी ज़रूरी है की नबी के लिए क्या जाइज़ है और क्या वाजिब और क्या मुहाल है कियूंकी वाजिब का इंकार करना और मुहाल का इकरार करना कुफ्र की वजह है और बहुत मुमकिन है की आदमी नादानी से अक़ीदा खिलाफ रखे या कुफ्र की बात ज़बान से निकाले और हलाक हो जाए|
अक़ीदा : – नबी उस बशर को कहते हैं जिसे अल्लाह तआला ने हिदायत के लिए “वही” भेजी हो और रसूल बशर ही के साथ ख़ास नहीं बल्कि फ़रिश्ते भी रसूल होते हैं|
अक़ीदा :- अम्बिया सब बशर थे और मर्द थे| न कोई औरत कभी नबी हुई न कोई जिन्न |
अक़ीदा :- नबियो का भेजना अल्लाह तआला पर वाजिब नहीं | उसने अपने करम से लोगों की हिदायत के लिए नबी भेजे |
अक़ीदा :- नबी होने के लिए उस पर वही होना ज़रूरी है यह वही चाहे फ़रिश्ते के ज़रिये हो या बिना किसी वास्ते और ज़रिये के हो |
अक़ीदा :- बहुत से नबियो पर अल्लाह तआला ने सहीफे और आसमानी किताबे उतारी | उन किताबों में चार किताबें मशहूर हैं |
- तौरेत — हज़रते मूसा अलैहिस्सलाम पर
- ज़बूर — हजरते दाऊद अलैहिस्सलाम पर
- इंजील — हजरते ईसा अलैहिस्सलाम पर
- क़ुरान शरीफ — हजरत मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि वसल्लम पर
क़ुरान शरीफ – अल्लाह तआला की की सबसे अफजल किताब है | और ये किताब सबसे अफजल रसूल’नबीओ के सरदार हजरत मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि वसल्लम पर नाजिल हुई |
तौरेत, ज़बूर, इंजील और क़ुरान शरीफ ये सब अल्लाह तआला के कलाम हैं और अल्लाह के कलाम में किसी का किस से अफ़ज़ल होने का हरगिज़ ये मतलब नहीं की अल्लाह का कोई कलाम घटिया हो कियुँकि अल्लाह एक है उसका कलाम एक है | उसके कलाम में घटिया बढ़िया की कोई गुंजाइश नहीं | अलबत्ता हमारे लिए क़ुरआन शरीफ में सवाब ज़्यादा है|
अक़ीदा:- सब आसमानी किताबें और सहीफे हक़ है और सब अल्लाह ही के कलाम हैं उनमे अल्लाह तआला ने जो कुछ इरशाद फ़रमाया उन सब पर ईमान ज़रूरी है मगर यह बात अलबत्ता हुई की अगली किताबों की हिफाज़त अल्लाह तआला ने उम्मत के सुपुर्द की थी और अगली उम्मत उन सहीफो और किताबो की हिफाज़त न कर सकी इसलिए अल्लाह का कलाम जैसा उतरा था वैसा उनके हाथो में बाक़ी न रह सका बल्कि उनके शरीरो (बुरे लोगों) ने अल्लाह के कलाम में अदल बदल कर दिया जिसे तहरीफ़ कहते हैं उन्होंने अपनी ख्वाहिश के मुताबिक घटा बड़ा दिया इसीलिए जब उन किताबों की कोई बात हमारे सामने आये तो अगर वह बात हमारी किताब के मुताबिक है तो हम को तस्दीक करना चाहिए और अगर मुखालिफ है तो यक़ीन कर लेंगे की उन अगली शरीर उम्मतीओ की तेहरिफात से है और मुखालिफ या मुवाफिक कुछ पता न चले तो हुक्म है कि हम न तो तस्दीक करें न झुटलायें यूँ कहें कि
آمَنَ بِاللَّهِ وَمَلائِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ
Para No.3 Sooraye Baqraah
तर्जमा (कंज़ुल ईमान) :- अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों पर हमारा ईमान है |
अक़ीदा :- चुंकि यह दीन हमेशा रहने वाला है इसलिए कुरआन शरीफ कि हिफाज़त अल्लाह तआला ने अपने ज़िम्मे रखी जैसा कि कुरआन शरीफ में है कि
إِنَّا نَحْنُ نَزَّلْنَا الذِّكْرَ وَإِنَّا لَهُ لَحَافِظُونَ
Para No.14 Sooraye Hijr
तर्जमा (कंज़ुल ईमान) :-बेशक हमने कुरआन उतारा और बेशक हम खुद उसके ज़रूर निगेहबान हैं इसीलिए अगर तमाम दुनिया कुरआन शरीफ के किसी एक हर्फ़ लफ्ज या नुक्ते को बदलने की कोशिश करे तो बदलना मुमकिन नहीं तो जो यह कहे कि कुरआन के कुछ पारे या सूरतें या आयतें या एक हर्फ़ भी किसी ने कम कर दिया या बढ़ा दिया या बदल दिया वोह काफिर है क्यो कि उसने ऐसा कहकर ऊपर लिखी आयत का इंकार किया |
अक़ीदा :- कुरआन मजीद अल्लाह कि किताब होने पर अपने आप दलील है अल्लाह तआला ने खुद ऐलान के साथ फ़रमाया है कि
وَإِنْ كُنتُمْ فِي رَيْبٍ مِمَّا نَزَّلْنَا عَلَى عَبْدِنَا فَأْتُوا بِسُورَةٍ مِنْ مِثْلِهِ وَادْعُو
ا شُهَدَاءَكُمْ مِنْ دُونِ اللَّهِ إِنْ كُنتُمْ صَادِقِينَ (23) فَإِنْ لَمْ تَفْعَلُوا وَلَنْ تَفْعَلُوا
فَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِي وَقُودُهَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ أُعِدَّتْ لِلْكَافِرِينَ
Para No.1 Sooraye Baqraah
तर्जमा (कंज़ुल ईमान) :- अगर तुमको इस किताब में जो हमने अपने सबसे खास बन्दे हज़रत मुहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम पर उतारी कोई शक हो तो उसकी मिस्ल (तरह ) कोई छोटी सी सूरत कहलाओ और अल्लाह के सिवा अपने सब हिमायातिओ को बुलाओ अगर तुम सच्चे हो तो अगर ऐसा न कर सको और हम कहें देते हैं हरगिज़ ऐसा न कर सकोगे तो उस आग से डरो जिसक ईंधन आदमी और पत्थर है जो काफिरो के लिए कि गयी है |
लिहाज़ा काफिरों ने उस के मुकाबिले में जान तोड़ कोशिश कि मगर उसके मिस्ल एक सूरत न बना सके |
मसला :- अगली किताबें नबियों को ही ज़ुबानी याद होतीं लेकिन क़ुरआन मजीद का मोजिज़ा है कि मुसलमानों का बच्चा बच्चा उसको याद कर लेता है |
अक़ीदा :- क़ुरआन मजीद कि सात किराते हैं | मतलब यह है कि क़ुरआन मजीद सात तरीकों से पढ़ा जा सकता है और ये सातों तरीके बहुत है मशहूर हैं उनमें से किसी जगह मानें में कोई इख्तिलाफ नहीं | वो सब तरीके हक़ हैं | उनमे उम्मत के लिए आसानी यह है कि जिसके लिए जो किरात आसान हो वो पढ़े | और शरीयत का हुक्म यह है कि जिस मुल्क में जिस किरात का रिवाज़ हो अवाम के सामने वही पढ़ी जाये |
क़ुरआन शरीफ पढ़ने के सात करीयों के तरीके मशहूर हैं ये सातों किरात के इमाम माने जाते हैं |
- इब्ने आमिर
- इब्ने कसीर
- आसिम
- नाफ़े
- अबू उमर
- हमजा
- किसाई रहमतुल्लाही अजमईन
हमारे मुल्के हिंदुस्तान में आसिम कि रिवायत का ज़्यादा रिवाज़ है | इसलिए रिवाज़ को ध्यान में रखते हुए हिंदुस्तान में आसिम कि रिवायत से है क़ुरआन शरीफ पढ़ा जाता है, क्यूंकि अगर दूसरी रिवायत पढ़ी जाये तो लोग न समझेंगें क़ुरआन कि आयत का इंकार कर देंगें और यह कुफ्र है |
अक़ीदा :- क़ुरआन मजीद ने अगली किताबों से बहुत से अहकाम मंसूख कर दिए हैं इसी तरह क़ुरआन शरीफ कि बाज़ आयातें बाज़ आयतें से मंसूख हो गयी हैं |
अक़ीदा :- नस्ख़ (मंसूख करने) का मतलब यह है कि कुछ अहकाम ख़ास वक़्त तक के लिए हैं मगर यह ज़ाहिर नहीं किया जाता कि यह हुक्म किस वक़्त तक के लिए है जब मीआद पूरी हो जाती है तो दूसरा हुक्म नाज़िल होता है जिसमे ज़ाहिरी तोर पर यह पता चलता है कि वो पहला हुक्म उठा दिया और हकीकत में देखा जाये तो उसके वक़्त का ख़तम होना बताया गया और मंसूख का मतलब कुछ लोग बातिल होना कहतें हैं लेकिन यह बहुत बुरी बात है | क्यूंकि अल्लाह के सारे हुक्म हक़ है उनके बातिल होने का कोई सवाल पैदा नहीं होता |
अक़ीदा :- क़ुरआन शरीफ कि कुछ बातें मुहकम और कुछ बातें मुताशाबिह है | मुहकम वो बातें हैं जो हमारी समझ में आती हैं और मुताशाबेह वह बातें हैं कि उनका पूरा मतलब अल्लाह और अल्लाह के हबीब सलल्लाहु तआला अलैहि वस्सलम के सिवा कोई नहीं जानता और न जान सकता है अगर कोई मुताशाबेह के मतलब कि तलाश करे तो समझ न चाहिए कि उसके दिल में कज़ी (टेढ़) है |
अक़ीदा :- वही अल्लाह के पैगाम जो नबियों के लिए ख़ास होते हैं उन्हें वहये नुबुव्वत कहते हैं और वहये नुबुव्वत नबी के अलावा किसी और के लिए मन्ना कुफ्र है | नबी को ख्वाब में जो चीज़ बताई जाये वो भी वही है | उसके झूठे होने का कोई गुमान नहीं | वली के दिल में कभी कभी सोते या जागते में कोई बात बताई जाती है उसको इल्हाम कहते हैं | और वहये शैतानी वो है कि जो शैतान कि तरफ से दिल में कोई बात आये | ये वही काहिन जो (ज्योतिष) जादूगरों और दुसरे काफिरों और फासिक़ों के लिए होती है |
अक़ीदा :- नुबुव्वत ऐसी चीज़ नहीं कि आदमी इबादत या मेहनत के ज़रिये से हासिल कर सकें बल्कि यह महज़ अल्लाह तआला कि दें है कि जिसे चाहता है अपने करम से देता है और देता उसी को है कि जिसको उसके लाइक बनता है | जो नुबुव्वत हासिल करने से पहले तमाम बुरी आदतों से पाक और तमाम ऊंचे अख़लाक़ से अपने आप को सवाब को विलायत के तमाम दर्जे तये कर चुकता है | अपने हसब, नसब, जिस्म, क़ौल और अपने सारे कामो में हर ऐसी बात से पाक होता है जिनसे नफरत हो | और उसे ऐसी कामिल अक़्ल अता कि जाती है जो औरों कि अक़्ल से कहीं ज़्यादा होती है यहां तक कि किसी हाकिम और फलसफी कि अक़्ल उसके लाखवें हिस्से तक नहीं पहुचं सकतीं |
اللَّهُ أَعْلَمُ حَيْثُ يَجْعَلُ رِسَالَتَهُ
Para No.8 Surah Inaam
ذَلِكَ فَضْلُ اللَّهِ يُؤْتِيهِ مَنْ يَشَاءُ وَاللَّهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ
Para No.28 Sooraye Hadeed
तर्जुमा (कंज़ुल ईमान) :- अल्लाह खूब जानता है जहाँ अपनी रिसालत रखे | यह अल्लाह का फ़ज़ल है जिसे चाहे दे और अल्लाह बड़े फ़ज़ल वाला है |
अक़ीदा :- शरीयत का क़ानून यह है की अगर कोई यह समझे की आदमी कोशिश और मेहनत से नुबुव्वत तक पहुंच सकता है या यह समझे की नबी से नुबुव्वत का ज़वाल यानी ख़त्म होना जाइज़ है वो काफिर है |
अक़ीदा :- नबी का मासूम होना ज़रूरी है | इसी तरह मासूम होने की खुसूसियत फरिश्तों के लिए भी है | और नबियों और फरिश्तों के सिवा कोई मासूम नहीं | कुछ लोग इमामो को नबियों की तरह मासूम समझते हैं यह गुमराही और बददिनी है | नबियों के मासूम होने का मतलब यह है की उनकी हिफाज़त के लिए अल्लाह ताला का वादा है इसी लिए शरीयत का फैसला है की उनसे गुनाह का होना मुहाल और नामुमकिन है | अल्लाह ताला इमामो और बड़े बड़े वालियों को भी गुनाहों से बचाता है मगर शरीयत की रौशनी में उनसे गुनाह का हो जाना मुहाल भी नहीं |
अक़ीदा :- अम्बिया अलैहिस्सलाम शिर्क से, कुफ्र से और हर ऐसी चीज़ से पाक और मासूम हैं कामो से भी पाक हैं जो उनके नुबुव्वत से पहले और नुबुव्वत के बाद वजाहत और मुरव्वत के खिलाफ हैं | इस पर सबका इत्तिफ़ाक़ है | और कबीरा गुनाहों से भी सारे नबी बिलकुल पाक और मासूम हैं | और हक़ तो यह है की नुबुव्वत से पहले और नुबुव्वत के बाद नबी सगीरा गुनाहों के इरादे से भी पाक और मासूम हैं |
अक़ीदा :- अल्लाह ताला ने नबियों पर बन्दों के लिए जितने अहकाम नाज़िल किये वो सब उनहोंने पहुंचा दिए | अगर कोई यह कहे की किसी नबी ने हुक्म को छुपा रखा तक़िय्या यानी डर की वजह से नहीं पहुँचाया वो काफिर है क्यूंकि तब्लीगी अहकाम में नबियो से भूल चूक मुमकिन नहीं | ऐसी बीमारियों से के जिन से नफरत होती है जैसे कोढ़, बर्स और ज़ूजाम वगैरह से नबी के जिस्म का पाक होना ज़रूरी है |
अक़ीदा :- इल्मे ग़ैब के बारे में अहले सुन्नत का मज़हब और मसलक यह है की अल्लाह तआला ने नबियो को अपने गैबों पर इत्तिला दी | यहां तक की ज़मीन और आसमान का हर ज़र्रा हर नबी के सामने है |इल्मे ग़ैब दो तरह का है एक इल्मे जाती और दूसरा इल्मे ग़ैब अताई| इल्मे ग़ैब जाती सिर्फ अल्लाह तआला ही को है और इल्मे अताई नबिओं और वलियों को अल्लाह तआला के देने से हासिल होता है अताई इल्म अल्लाह तआला के लिए नामुमकिन और मुहाल है | कियुँकि अल्लाह तआला की कोई सिफ़्त या कमाल चाहे उसका सुन्ना, देखना, कलाम, ज़िन्दगी और मौत देना वगैरह किसी की दी हुयी नहीं है बल्कि जाती है | और नबिओं की सिफ़तें या उनका इल्म जाती नहीं | जो लोग यह कहते हैं नबी अलैहिस्सलाम को किसी तरह का इल्मे ग़ैब नहीं वो क़ुरान शरीफ की इस आयात के मुताबिक़ है
فَتُؤْمِنُونَ بِبَعْضِ الْكِتَابِ وَتَكْفُرُونَ بِبَعْضٍ
Para No.1 Sooraye Baqraah
तर्जुमा (कंज़ुल ईमान) :- क़ुरआन शरीफ की कुछ बातें मानते हैं और कुछ का इंकार करते हैं |
वह आयतें देखतें हैं जिनसे इल्मे ग़ैब की नफ़ी मालूम होती है क्योकि वो लोग उन आयतो को देखते और मानते हैं जिनसे नबियों से इल्म ऐ ग़ैब की नफ़ी का पता चलता है | क्योंकि वो लोग उन आयतों का इंकार करतें हैं जिनमे नबिओं को इल्मे ग़ैब दिया जाना (आता किया जाना) बयान किया गया है जब की नफ़ी (इल्मे ग़ैब से इंकार) और इस बात (इल्मे ग़ैब का सुबूत) दोनों हक़ हैं | वो इस तरह की नफ़ी इल्मे जाती की है क्योंकि ये उलूहियत यानी अल्लाह तआला के लिए ख़ास है और इस बात इल्मे ग़ैब अताई का है कि ये नबिओं की ही शान और उन्ही के लाइक हैं और उलूहियत के खिलाफ हैं |अगर कोई ये कहे की नबी के लिए हर ज़र्रे का इल्म मानने से ख़ालिक़ और मख्लूक़ में बराबरी लाज़िम आएगी उसका यह कहना बिलकुल बातिल है | ऐसी बात काफिर ही कह सकता है
क्योकि बराबरी तो उस वक़्त हो सकती जबकि जितना इल्म मख्लूक़ को मिला है उतना ही इल्म ख़ालिक़ के लिए भी माना और साबित किया जाये |
फिर यह की जाती और अताई का फ़र्क़ बताने पर भी बराबरी और मसावात का इलज़ाम देना खुले तौर पर ईमान और इस्लाम के खिलाफ है क्योकि अगर इस फ़र्क़ के होते हुए भी बराबरी हो जाया करे तो लाज़िम आएगा की मुमकिन और वाजिब वुजूद में बराबर हो जाये |
क्योकि मुमकिन भी मौजूद है और वाजिब भी मौजूद है | इस पर भी मुमकिन और वाजिब को वुजूद में बराबर कहना खुला हुआ शिर्क है |
अम्बिया अलैहिस्सलाम ग़ैब की ख़बरें देने के लिए आते ही हैं क्योकि दोज़ख, जन्नत, क़यामत, हश्र, नश्र और अज़ाब, सवाब, ग़ैब नहीं तो और क्या है | नबियों का मनसब ही यह है वो बातें बताएं की जिन तक अक़्ल और हवास की भी पहुंच न हो सके और इसी का नाम ग़ैब है | वलियों को भी इल्म ग़ैब अताई होता है मगर वलियों को नबियों के ज़रिये से इल्मे ग़ैब आता किया जाता है |
अक़ीदा :- अम्बियाए किराम तमाम मख़लूक़ात यहाँ तक की रसूलों और फरिश्तों से भी अफ़ज़ल हैं और वाली कितना ही बड़े मर्तबे और दर्जे वाला हो किसी नबी के बराबर नहीं हो सकता | शरीअत का क़ानून है को जो कोई गैर नबी को नबी से ऊंचा या नबी के बराबर बताये वो काफिर |
अक़ीदा :- नबी की ताज़ीम फर्ज़े ऐन यानी हर एक पर फ़र्ज़ बल्कि तमाम फ़र्ज़ों की असल है | यहां तक की अगर कोई नबी की अदना सी भी तौहीन करे वो काफिर है |
अक़ीदा :- हज़रते आदम अलैहिस्सलाम से हमारे हुज़ूर सय्यदे आलम हज़रात मुहम्मद सल्ललाहु तआला अलैहि वसल्लम तक अल्लाह तआला ने बहुत से नबी भेजे कुछ नबिओं का ज़िक्र क़ुरआन शरीफ में खुले तौर पर आया है और कुछ का नहीं | जिन नबियों के मुबारक नाम खुले तौर पर क़ुरआन शरीफ में आये हैं वो यह हैं : –
- हज़रते आदम अलैहिस्सलाम
- हज़रते नूह अलैहिस्सलाम
- हज़रते इब्राहीम अलैहिस्सलाम
- हज़रते इस्माईल अलैहिस्सलाम
- हज़रते इस्हाक़ अलैहिस्सलाम
- हज़रते याक़ूब अलैहिस्सलाम
- हज़रते युसूफ अलैहिस्सलाम
- हज़रते मूसा अलैहिस्सलाम
- हज़रते हारुन अलैहिस्सलाम
- हज़रते शुएब अलैहिस्सलाम
- हज़रते लूत अलैहिस्सलाम
- हज़रते हूद अलैहिस्सलाम
- हज़रते दाऊद अलैहिस्सलाम
- हज़रते सुलैमान अलैहिस्सलाम
- हज़रते अय्यूब अलैहिस्सलाम
- हज़रते ज़करिया अलैहिस्सलाम
- हज़रते यहयाह अलैहिस्सलाम
- हज़रते ईसा अलैहिस्सलाम
- हज़रते इल्यास अलैहिस्सलाम
- हज़रते अलिसा अलैहिस्सलाम
- हज़रते यूनुस अलैहिस्सलाम
- हज़रते इदरीस अलैहिस्सलाम
- हज़रते ज़ुलक़िफ्ल अलैहिस्सलाम
- हज़रते सालेह अलैहिस्सलाम
- और हम सब के आक़ा और मौला हुज़ूर सय्यदुल मुर्सलीन हज़रत मुहम्मदुर रसूलुल्लाह सल्ललहु तआला अलैहि वसल्लम |
अक़ीदा :- हज़रते आदम अलैहिस्सलाम को अल्लाह तआला ने बिना माँ बाप के मिटटी से पैदा किया और अपना खलीफा (नाइब) बनाया और तमाम चीज़ों का इल्म दिया है | फरिश्तों को अल्लाह तआला ने हुक्म दिया की हज़रते आदम अलैहिस्सलाम को सजदा करें सभी ने सजदे किये लेकिन शैतान जो जिन्नात की क़िस्म में से था मगर बहुत बड़ा आबिद और ज़ाहिद होने की वजह से उसकी गिनती फरिश्तों में होती थी उसने हज़रते आदम को सजदा करने से इंकार कर दिया इसी लिए वो हमेशा के लिए मरदूद हो गया |
अक़ीदा :- हज़रते आदम अलैहिस्सलाम से पहले कोई इंसान नहीं था बल्कि सब इंसान हज़रते आदम की ही औलाद हैं इसीलिए इंसान को आदमी कहते है यानि आदम की औलाद और चूकि हज़रते आदम अलैहिस्सलाम सरे इंसानो के बाप है इसीलिए उन्हें अबुल बशर कहा जाता है यानि सब इंसानो के बाप |
अक़ीदा :- सब में पहले नबी हज़रते आदम अलैहिस्सलाम हुए और सब में पहले रसूल जो काफिरों पर भेजे गए हज़रते नूह अलैहिस्सलाम हैं | उन्होंने साढ़े नौ सो बरस तबलीग की, उनके ज़माने के काफिर बहुत सख्त थे | वो हज़रते नूह अलैहिस्सलाम को दुःख पहुंचाते और उनका मज़ाक उड़ाते और यहाँ तक की इतनी लम्बी मुद्दत में गिनती के लोग मुसलमान हुए | बाक़ी लोगों को जब उन्हों ने देखा की वो हर्जिग रहे रास्त पर नहीं आएंगे और अपनी हटधर्मी और कुफ्र से बाज़ नहीं आएंगे तो मजबूर होकर उन होंने अपने रब से काफिरों की हलाकि और तबाही के लिए दुआ की नतीजा ये हुवा की तूफान आया और साड़ी ज़मीन डूब गयी और सिर्फ वो गिनती के मुस्लमान और हर जानवर का एक एक जोड़ा जो कश्ती में ले लिया गया था बचा गया |
अक़ीदा :- नबियों को तादात मुक़र्रर करना जाइज़ नहीं कियुँकि तादात मुक़र्रर करने और उसी तादात पर ईमान रखने से यह खराबी लाज़िम आएगी की अगर जितने नबी आये उनसे हमारी गिनती कम हुयी तो जो नबी थे उनको हमने नुबुव्वत से खारिज कर दिया और और अगर जितने नबी आये उन से हमारी गिनती ज़ियादा हुयी तो जो नबी नहीं थे उनको हमने नबी मान लिया यह दोनों बातें इस लिए ठीक नहीं की पहली सूरत में नबी नुबुव्वत से ख़ारिज हो जाएँगे और दूसरी सूरत में जो नबी नहीं वो नबी माने जाएँगे और अहले सुन्नत का मज़हब यह है की नबी का नबी न मानना या ऐसे को नबी मान लेना जो नबी ना हो कुफ्र है | इस लिए एतिक़ाद यह रखना चाहिए की हर नबी पर हमारा ईमान है |
अक़ीदा :- नबियों के अलग अलग दर्जे हैं कुछ नबी कुछ से फ़ज़ीलत रखते हैं और सब में अफ़ज़ल हमारे आक़ा व मौला सय्यदुल मुर्सलीन सल्ललाहु अलैहिवसल्लम हैं हमारे सरकार के बाद सब से बड़ा मर्तबा हज़रते इब्राहीम खलीलुल्लाह अलैहिस्सलाम का है | फिर हज़रते मूसा अलैहिस्सलाम फिर हज़रते ईसा अलैहिस्सलाम और हज़रते नूह अलैहिस्सलाम का दर्जा है | इन पांच नबियों को मुर्सलीने उलूल अज़म कहते हैं और पांचों बाक़ी तमाम नबियों रसूलों इंसान, फ़रिश्ते, जिन्न और अल्लाह की तमाम मख्लूक़ से अफ़ज़ल हैं | जिस तरह हुज़ूर तमाम रसूलों के सरदार और सबसे अफ़ज़ल हैं तो उनकी उम्मत भी उन्ही के सदक़े और तुफैल में तमाम उम्मतों से अफ़ज़ल है |
अक़ीदा :- तमाम नबी अल्लाह तआला की बारगाह में इज़्ज़त वाले हैं | उनके बारे में ये कहना की वो अल्लाह तआला के नज़दीक चूड़े चमार की तरह हैं, कुफ्र और बेअदबी है |
अक़ीदा :- नबी के नुबुव्वत के बारे में सच्चे होने की एक दलील यह है की नबी अपनी सच्चाई का ऐलानियत दवा कर के वो चीज़ों जो आदत के ऐतिबार से मुहाल है उन्हें ज़ाहिर करने का ज़िम्मा लेता है और जो लोग नबी की नुबुव्वत और सदाक़त का इंकार करते हैं ये उन काफिरों को चेलेंज करते हैं की अगर तुम में सच्चाई हो तो तुम भी ऐसा कर दिखाओ लेकिन सारे के सारे काफिर आजिज़ रह जाते हैं और नबी अपने दावे में कामयाब होकर आदत के एतिबार से जो चीज़ मुहाल होती है उनको अल्लाह के हुक्म से ज़ाहिर करता है और इसी को मोजिज़ा कहते हैं जैसे हज़रते सालेह अलैहिस्सलाम की ऊंटनी, हज़रते मूसा अलैहिस्सलाम के असा (छड़ी) का सांप हो जाना . उनकी हतेली में चमक का पैदा होना और हज़रते इससे अलैहिस्सलाम का मुर्दों को जिलाना और पैदाइशी अंधों और कोढ़ियों को अच्छा कर देना | और हमारे हुज़ूर सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के तो बहुत से मोजिज़ें हैं |
अक़ीदा :- जो शख्स नबी न हो और अपने आप को नबी कहे वो नबियों की तरह आदत के खिलाफ दावे के मुताबिक़ कोई काम नहीं कर सकता वरना सच्चे और झूठे में फ़र्क़ नहीं रह जायेगा |
फाइदा :- किसी नबी से अगर इज़हारे नुबुव्वत के बाद आदत के खिलाफ कोई काम ज़ाहिर हो तो उसे मोजिज़ा कहते हैं | नबी से उस के इज़हारे नुबुव्वत से पहले कोई काम आदत के खिलाफ ज़ाहिर हो तो उसे Irhaas कहते हैं | ख़िलाफ़े आदत काम का मतलब ऐसे काम से है जिसे अक़्ल तस्लीम करने से आजिज़ हो और जिन का करना आम आदमी के लिए नामुमकिन हो |
और वली से ऐसी बात ज़ाहिर हो तो उसको करामत कहते हैं | आम मोमिनीन से अगर इस तरह का कोई काम होता तो उसे मुऊनत कहते हैं और बेबाक लोगों फासिकों, फाजीरों या काफिरों से जो उन के मुताबिक़ ज़ाहिर हो उसे इसदितराज कहते हैं |
अक़ीदा :- अम्बिया अलैहिस्सलाम अपनी अपनी क़ब्रो में उसी तरह हकीकी जिंदगी के साथ जिन्दा हैं जैसे दुनिया में थे | खाते पीते है जहा चाहे आते जाते है| अलबत्ता अल्लाह तआला के वादे की हर नफ़्स को मौत का मजा चखना है के मुताबिक नबियो पर एक आन के लिए मौत आई और फिर उसी तरह ज़िंदा हो गए जैसे पहले थे | उनकी हयात शहीदों की हयात से कहीं ज़ियादा बुलंद व बाला है इसी लिए शरीयत का क़ानून ये है की शहादत के बाद शहीद का तर्का (बचा हुवा माल) तकसीम होगा | उसकी बीवी इद्दत गुज़ार कर दूसरा निकाह कर सकती है लेकिन नबियो के यहां यह जाइज़ नहीं | अब तक नुबुव्वत के बारे में जो अक़ीदे बताये गए इनमे नबी शरीक हैं |
हवाला – बहारे शरीयत जिल्दे अव्वल पहला हिस्सा और कानून ऐ शरीयत