मसअला :- हज वाजिब होने की आठ शर्तें हैं, जब तक वो सब न पाई जाएं हज फ़र्ज़ नहीं:
(1). इस्लाम :- लिहाज़ा अगर मुस्लमान होने से पहले इस्तिताअत (ताक़त) थी फिर फ़क़ीर हो गया और इस्लाम लाया तो ज़मानए कुफ्र की इस्तिताअत की बिना पर इस्लाम लाने के बाद हज फ़र्ज़ न होगा के जब तक इस्तिताअत थी उसका अहिल न था और अब के अहिल हुआ इस्तिताअत नहीं और मुस्लमान को अगर इस्तिताअत (ताक़त) थी और हज न किया था अब फ़क़ीर हो गया तो अब भी फ़र्ज़ है | (दुर्रे मुख़्तार, रद्दुल मुख़्तार)
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मसअला :- हज करने के बाद मआज़ अल्लाह मुरतद हो गया (मुरतद वो शख्स के इस्लाम के बाद किसी ऐसे अम्र का इंकार करे, जो ज़रूरियाते दीन से हों यानि ज़बान से कलमए कुफ्र बके जिसमे तवील सही की गुंजाइश न हो यूं ही बाज़ अफ़आल भी ऐसे हैं जिनसे काफिर हो जाता है मसलन बुत को सजदह करना, मुस्हफ शरीफ को निजासत की जगह फेंक दे) फिर इस्लाम लाया तो अगर इस्तिताअत (ताक़त) हो तो फिर हज करना फ़र्ज़ है, के मुरतद होने से हज वगैरह सब आमाल बातिल हो गए (आलमगीरी) यूं हैं अगर हज करते में मुरतद हो गया तो एहराम बातिल हो गया और अगर काफिर ने बांधा एहराम था, फिर इस्लाम लाया तो अगर फिर से एहराम बांधा और हज किया तो होगा वरना नहीं |
(2) दारुल हरब :- दारुल हरब (दारुल हरब वो जगह है के जहाँ बादशाहे इस्लाम का हुक्म कभी जारी न हुआ हो जैसे रूस, फिरांस, जर्मन, और पर्तिगाल वगैरह यूरोप के अक्सर मुमालिक, बादशाहे इस्लाम के एहकाम जारी हुए हों मगर गलबए कुफ्फार के बाद शिआरे इस्लाम बिलकुल मिटा दिए गए हों और वहां कोई मुसलमान अमन अव्वल पर बाक़ी न हो और ये भी शर्त है के वो दारुल हरब से दारुल से मिला हुआ हो इस्लामी सल्तनत से घिरा हुआ न हो) में हो तो ये भी ज़रूरी है के जानता हो के इस्लाम के फ़राइज़ में हज है लिहाज़ा जिस वक़्त इस्तिताअत (ताक़त) थी ये मसअला मालूम न था और जब मालूम हुआ उस वक़्त इस्तिताअत (ताक़त) न हो तो फ़र्ज़ न हुआ और जानने का जरिया ये है के दो मर्दों या एक मर्द और दो औरतों ने जिनका फ़ासिक़ होना ज़ाहिर न हो, उसे खबर दें और एक आदिल ने खबर दी, जब भी वाजिब हो गया और दारुल इस्लाम में है तो अगरचे हज फ़र्ज़ होना मालूम न हो फ़र्ज़ हो जाएगा के दारुल इस्लाम में फ़राइज़ का इल्म न होना उज़्र नहीं | (अलागिरी)
(3) बालिग होना :- नाबालिग ने हज किया यानि अपने आप जबकि समझदार हो या उसके वली ने उसकी तरफ से एहराम बांधा हो जब के नासमझ हो, बेहरेहाल वो हज निफल हुआ, हुज्जतुल इस्लाम यानि हज्जे फ़र्ज़ के क़ाइम मक़ाम नहीं हो सकता |
मसअला :- नाबालिग ने हज का एहराम बांधा और वक़ूफ़े अरफ़ा से पहले बालिग हो गया तो अगर इसी पहले एहराम पर रह गया हज निफल हुआ हुज्जतुल इस्लाम न हुआ और अगर सिरे से एहराम बांधकर वक़ूफ़े अरफ़ा किया तो हुज्जतुल इस्लाम हुआ | (आलमगीरी वगैरह)
(4) आक़िल होना :- आक़िल होना मजनून यानि पागल पे फ़र्ज़ नहीं है
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मसअला :- मजनून था और वक़ूफ़े अरफ़ा से पहले जुनून जाता रहा और नया एहराम बांधकर हज किया तो ये हज हुज्जतुल इस्लाम हो गया वरना नहीं | बोहरा यानि बहुत ज़्यादा बेवक़ूफ़ मजनूँ के हुक्म में है | (रद्दुल मुहतार, आलमगीरी)
मसअला :- हज करने के बाद मजनून यानि पागल हुआ फिर अच्छा हुआ तो इस जूनून का हज पर कोई असर नहीं यानि अब उसे दोबारा हज करने की ज़रुरत नहीं, अगर एहराम के वक़्त अच्छा था फिर मजनून हो गया और इसी हालत में अफआल अदा किए फिर बरसों के बाद होश में आया तो हज फ़र्ज़ अदा हो गया | (मुनसक)
(5) आज़ाद होना :- बांदी गुलाम पर हज फ़र्ज़ नहीं अगरचे मुदब्बिर (यानि वो गुलाम जिसकी निस्बत मौला ने कहा के तू मेरे मरने के बाद आज़ाद) या मकातिब उम्मे वलद (उम्मे वलद यानि वो लौंडी जिसके बच्चा पैदा हुआ और मौला ने इक़रार किया के मेरा बच्चा है) हों अगरचे उनके मालिक ने हज करने की इजाज़त देदी हो अगरचे वो मक्का ही में हों |
मसअला :- गुलाम ने अपने मौला के साथ हज किया तो ये हज निफल हुआ हुज्जतुल इस्लाम न हुआ | आज़ाद होने के बाद अगर शराइत पाएं जाएं तो फिर करना होगा और अगर मौला के साथ हज को जाता था, रास्ता में उसने आज़ाद कर दिया तो अगर एहराम से पहले आज़ाद हुआ, अब एहराम बांधकर हज किया तो हुज्जतुल इस्लाम अदा हो गया और एहराम बांधने के बाद आज़ाद हुआ तो हुज्जतुल इस्लाम न होगा, अगरचे नया एहराम बांधकर हज किया हो |
(6) तंदुरुस्त होना :- के हज को जा सके, आज़ा (हाथ पैर) सलामत हों, अँखियारा हो, अपाहिज और फालिज वाले और जिसके पैर कटे हों और बूढ़े पर के सवारी पर खुद न बैठ सकता हो हज फ़र्ज़ नहीं | यूँही अंधे पर भी वाजिब नहीं अगरचे हाथ पकड़ कर ले चलने वाला उसे मिले | इन सब पर ये भी वाजिब नहीं के किसी को भेजकर अपनी तरफ से हज करा दें या वसीयत कर जाएं और अगर तकलीफ उठाकर हज कर लिया तो सही हो गया और हुज्जतुल इस्लाम अदा हुआ यानि उसके बाद अगर आज़ा ठीक हो गए तो अब दोबारा हज फ़र्ज़ नहीं वही पहला हज काफी है | (आलमगीरी)
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मसअला :- अगर पहले तंदुरुस्त था और दीगर शराइत भी पाए जाते थे और हज न किया फिर अपाहिज वगैरह हो गया के हज नहीं कर सकता तो उसपर हजज्जे फ़र्ज़ बाक़ी है खुद न कर सके तो हज्जे बदल कराए | (आलमगीरी वगैरह)
(7) सफर खर्च का मालिक हो और सवारी पर क़ादिर हो :- खुद सवारी उसकी मिल्क हो या उसके पास इतना माल हो के किराए पर ले सके
मसअला :- किसी ने हज के लिए उसको इतना माल मुबाह कर दिया के हज करले तो हज फ़र्ज़ की इबाहत से मिल्क नहीं होती और फ़र्ज़ होने के लिए मिल्क दरकार है, चाहे मुबाह करने वाले का इस पर एहसान हो जैसे गैर लोग या न हों जैसे माँ, बाप, औलाद, यूँही अगर आरियतन यानि आरज़ी तौर पर दी हुई चीज़ सवारी मिल जाएगी जब भी फ़र्ज़ नहीं | (आलमगीरी वगैरह)
मसअला :- किसी ने हज केलिए माल हिबा किया तो क़बूल करना उसपर वाजिब नहीं, देने वाला अजनबी हो या माँ, बाप, औलाद वगैरह मगर क़बूल कर लेगा तो हज वाजिब हो जाएगा |
(आलमगीरी वगैरह) मसअला :- सफर खर्च और सवारी पर क़ादिर होने के ये माना हैं के ये चीज़ें उसकी हाजत से फ़ाज़िल हों यानि माकन व लिबास व खादिम और सवारी का जानवर और पेशा के औज़ार और ख़ानदारी के सामान और दैन से इतना ज़ाइद हो के सवारी पे मक्का मुअज़्ज़मा जाए और वहाँ से सवारी पर वापस आए और जाने से वापसी तक अयाल का नुफ्क़ा और माकन की मरम्मत के लिए काफी माल छोड़ जाए और जाने आने में अपने नुफ्क़ा और घर अहलो अयाल के नुफ्क़े में क़द्रे मुतवस्सित एतिबार है न कमी हो न इसराफ़ | अयाल से मुराद वो लोग हैं जिनका नुफ्क़ा उसपर वाजिब है ये ज़रूरी नहीं के आने के बाद भी वहां और यहाँ के खर्च के बाद कुछ बाक़ी बचे | (दुर्रे मुख़्तार, आलमगीरी)
मसअला :- सवारी से मुराद इस क़िस्म की सवारी है जो उर्फ़न और आदतन उस शख्स के हाल के मवाफ़िक़ हो मसलन अगर मुतमव्विल (मालदार) आराम पसंद हो तो उसके लिए शकदफ (यानि दो चार पाइयाँ जो ऊँट के दोनों तरफ लटकाते हैं हर एक में एक शख्स बैठता है) दरकार होगा यूँही तोशे में उसके मुनासिब ग़िज़ाएं चाहिए, मामूली खाना मयस्सर आना फ़र्ज़ होने के लिए काफी नहीं, जब के वो अच्छी ग़िज़ा का आदि नहीं | (मुनसक)
मसअला :- जो लोग हज को जाते हैं, वो दोस्त एहबाब के लिए तोहफा लाया करते हैं ये ज़रूरियात में नहीं यानि अगर किसी के पास इतना माल है के जो ज़रूरियात बताए गए उनके लिए और आने जाने के इख़राजात के लिए काफी है मगर कुछ बचेगा नहीं के एहबाब वगैरह के लिए तोहफा लाए जब भी हज फ़र्ज़ है उसकी वजह से हज न करना हराम है | (रद्दुल मुहतर)
मसअला :- जिसकी बसर औक़ात तिजारत पे है और इतनी हैसियत हो गई के उसमे से अपने जाने आने का खर्च और वापसी तक बाल बच्चों की खुराक निकाल ले तो इतना बाक़ी रहेगा, जिससे अपनी तिजारत बा क़द्र अपनी गुज़र के कर सके तो हज फ़र्ज़ है वरना नहीं और अगर वो काश्तकार है तो इन सब इख़राजात के बाद इतना बचे के खेती के सामान हल बेल वगैरह के लिए काफी हो तो हज फ़र्ज़ है और पेशा वालों के लिए उनके पेशा के सामान के लाइक बचना ज़रूरी है | (आलमगीरी, दुर्रे मुख़्तार)
मसअला :- सवारी में ये भी शर्त है के खास उसके लिए हो अगर दो शख्सों में मुश्तरिक है के बारी बारी दोनों थोड़ी थोड़ी दूर सवार होतें हैं तो ये सवारी पे क़ुदरत नहीं और हज फ़र्ज़ नहीं | यूँही अगर इतनी क़ुदरत है के एक मंज़िल के लिए मसलन किराए पर जानवर ले फिर एक मंज़िल पैदल चले तो ये सवारी पे क़ुदरत नहीं | (आलमगीरी)
आज कल जो शकदफ और शबरी का रिवाज है के एक शख्स एक तरफ सवार होता है और दूसरा दूसरी तरफ अगर यूं दो शख्सों में मुश्तरिक हो तो हज फ़र्ज़ होगा के सवारी पे क़ुदरत पाई गई और पैदल चलना न पड़ा | (मुनसक)
मसअला :- मक्का मुअज़्ज़मा या मक्का मुअज़्ज़मा से तीन दिन काम की राह वालों के लिए सवारी शर्त नहीं, अगर पैदल चल सकते हों तो उन पर हज फ़र्ज़ है अगरचे सवारी पे क़ादिर न हों और अगर पैदल न चल सकें तो उनके लिए भी सवारी पर क़ुदरत शर्त है |
(आलमगीरी,रद्दुल मुहतार)
मसअला :- मीक़ात से बाहर का रहने वाला जब मीक़ात तक पहुंच जाए और पैदल चल सकता हो तो सवारी उसके लिए शर्त नहीं, लिहाज़ाअगर फ़क़ीर हो जब भी उसे हज्जे फ़र्ज़ की नियत करनी चाहिए निफल की नियत करेगा तो उस पर दोबारा हज करना फ़र्ज़ होगा और मुतलक़ हज की नियत की यानि फ़र्ज़ या निफल कुछ मुअय्यन न किया तो फ़र्ज़ अदा हो गया |
(मुनसक रद्दुल मुहतार)
मसअला :- उसकी ज़रुरत नहीं के प्राइवेट टेक्सी या कर वगैरह आराम की सवारियों का किराया अदा करने की क़ुदरत रखता हो बल्कि मुश्तरक बस या टेक्सी पे सफर करने की ताक़त रखता हो तो फ़र्ज़ है इस लिए की किराया अदा करने की क़ुदरत साबित हो गई |
(दुर्रे मुख़्तार, रद्दुल मुहतार)
मसअला :- मक्का और मक्का से क़रीब रहने वालों को सवारी की ज़रुरत हो तो खिच्चर या गधे के किराया पर क़ादिर होने से भी सवारी पर क़ुदरत हो जाएगी अगर उसपे सवार हो सकें बाखिलाफ दूर वालों के की उनके लिए ऊँट का किराया ज़रूरी है के दूर वालों के लिए खिच्चर वगैरह सवार होने और सामान लादने के लिए काफी नहीं और ये फ़र्क़ हर जगह मलहूज़ रहना चाहिए | (रद्दुल मुहतार)
मसअला :- पैदल की ताक़त हो तो पैदल हज करना अफ़ज़ल है हदीस में है “जो पैदल हज करे” उसके लिए हर क़दम पर सात सौ नेकियां हैं | (रद्दुल मुहतार)
मसअला :- फ़क़ीर ने पैदल हज किया फिर मालदार हो गया तो उसपर दूसरा हज फ़र्ज़ नहीं |
(आलमगीरी)
मसअला :- इतना माल है के उससे हज कर सकता है मगर उस माल से निकाह करना चाहता है तो निकाह न करे बल्कि हज करे की हज फ़र्ज़ है यानि जब के हज ज़माना आ गया हो और अगर पहले निकाह में खर्च कर डाला बगैर बीवी के रहने में गुनाह का खौफ था तो हर्ज नहीं | (आलमगीरी,दुर्रे मुख़्तार)
मसअला :- रहने का मकान और खिदमत का गुलाम और पहिनने के कपड़े और बरतने के असबाब हैं तो हज फ़र्ज़ नहीं यानि लाज़िम नहीं के उन्हें बेच कर हज करे और अगर मकान है मगर उसमे रहता नहीं गुलाम है मगर उससे खिदमत नहीं लेता तो बेच कर हज करे और अगर उसके पास न मकान है न गुलाम वगैरह और रूपया है जिससे हज कर सकता है मगर मकान वगैरह का खरीदने का इरादा है और खरीदने के बाद हज के लाइक नहीं बचेगा तो फ़र्ज़ है के हज करे और बातों में उठाना गुनाह है यानि इस वक़्त के उस शहर वाले हज को जा रहे हों और अगर पहले मकान वगैरह खरीदने में उठा दिया तो हर्ज नहीं | (आलमगीरी,रद्दुल मुहतार)
मसअला :- कपड़े जिन्हें इस्तिलाम में नहीं लाता उन्हें बेच डाले तो हज कर सकता है तो बेचे और हज करे और अगर मकान बड़ा है जिसके एक हिस्से में रहता है बाक़ी फ़ाज़िल पड़ा है (ज़्यादा) तो ये ज़रूरी नहीं की फ़ाज़िल को बेच कर हज करे | (आलमगीरी)
मसअला :- जिस मकान में रहता है अगर उसे बेचकर उससे कम हैसियत का खरीद ले तो इतना रुपया बचेगा के हज करले तो बेचना ज़रूरी नहीं मगर ऐसा करे तो अफ़ज़ल है लिहाज़ा मकान बेचकर हज करना और किराए के मकान में गुज़र करना बदरजए औला ज़रूरी नहीं |
मसअला :- जिसके पास साल भर के खर्च का गल्ला हो तो ये लाज़िम नहीं के बेचकर हज को जाए और उससे ज़ाइद है तो अगर ज़ाइद के बेचने में हज का सामान हो सकता है तो हज फ़र्ज़ है | (आलमगीरी,रद्दुल मुहतार)
मसअला :- दीनी किताबें अगर अहले इल्म के पास हैं जो उसके काम में रहती हैं तो उन्हें बेचकर हज करना ज़रूरी नहीं और बे इल्म के पास हों और इतनी हैं के बेचे तो हज कर सकेगा तो उसपर हज फ़र्ज़ है वरना नहीं | (मुनसक)
(8) वक़्त :- यानि हज के महीनों में तमाम शराइत पाए जाएं और अगर दूर का रहने वाला हो तो जिस वक़्त वहां के लोग जाते हों उस वक़्त शराइत पाए जाएं और अगर शराइत ऐसे वक़्त पाए गए के अब नहीं पहुंचेगा तो फ़र्ज़ नहीं | यूँही अगर आदत के मुवाफ़िक़ सफर करे तो नहीं पहुंचेगा और जल्दी कर के जाए तो पहुंच जाएगा जब भी फ़र्ज़ नहीं और ये भी ज़रूरी है के नमाज़ें पढ़ सकें, अगर इतना वक़्त है के नमाज़ें वक़्त में पढ़ेगा तो न पहुंचेगा और नहीं पढ़ेगा तो पहुंच जाएगा तो फ़र्ज़ नहीं | (रद्दुल मुहतार)
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वुजूबे अदा के शराइत
यहाँ तक हज के फ़र्ज़ की शर्तों का बयान हुआ और शराइते अदा के वो पाए जाएं तो खुद हज को जाना ज़रूरी है और सब न पाए जाएं तो खुद ज़रूरी नहीं बल्कि दुसरे से हज करा सकता है या वसीयत कर जाए मगर इसमें ये भी ज़रूरी है के हज कराने के बाद आखिर उम्र तक खुद क़ादिर न हो वरना खुद भी करना ज़रूरी होगा वो शराइत ये हैं:
(1) :- रास्ते में अमन होना यानि अगर ग़ालिब गुमाने ग़ालिब सलामती हो तो जाना वाजिब और ग़ालिब गुमान ये हो के डाके वगैरह से जान ज़ाए हो जाएगी तो जाना ज़रूरी नहीं, जाने के ज़माने में अमन होना शर्त है पहले की बद अमनी क़ाबिले लिहाज़ नहीं | (आलमगीरी,रद्दुल मुहतार)
मसअला :- अगर बद अमनी के ज़माने में इन्तिक़ाल हो गया और और वुजूब के शराइत पाए जाते थे तो हज्जे बदल की वसीयत ज़रूरी है और अमन क़ाइम होने के बाद इन्तिक़ाल हुआ तो और ज़्यादा वसीयत वाजिब है | (रद्दुल मुहतार)
मसअला :- अगर अमन के लिए कुछ रिश्वत देना पढ़े जब भी जाना वाजिब है और ये अपने फ़राइज़ अदा करने के लिए मजबूर है लिहाज़ा इस देने वाले पर मवाख़िज़ा (पकड़)नहीं |
(दुर्रे मुख़्तार,रद्दुल मुहतार)
मसअला :- रास्ते में चुंगी वगैरह लेते हों तो ये अमन के मनाफ़ी नहीं और न जाने के लिए उज़्र नहीं यूँही टीका के आज कल हुज्जाज को लगाए जाते हैं ये भी उज़्र नहीं | (दुर्रे मुख़्तार)
(2) :- औरत को मक्का तक जाने में तीन दिन या ज़्यादा का रास्ता हो तो उसके साथ शोहर या मेहरम का होना शर्त है चाहे वो औरत जवान हो या बूढ़ी बुढ़िया (वो औरत जिसकी उम्र 50. या 60. साल की हो) और तीन दिन से कम की राह हो तो बगैर मेहरम और शोहर के भी जा सकती है | मेहरम से मुराद वो मर्द है जिससे हमेशा के लिए उस औरत का निकाह हराम है चाहे वो नसब की वजह से निकाह हराम हो, जैसे बाप,बेटा, भाई वगैरह या दूध के रिश्ते से निकाह की हुरमत हो, जैसे रज़ाई भाई, बाप, बेटा वगैरह या सुसराली रिश्ते से हुरमत आयी जैसे खुस्र शोहर का बेटा वगैरह |
शोहर या मेहरम जिसके साथ सफर कर सकती है उसका आक़िल बालिग़ गैर फ़ासिक़ होना शर्त है | मजनून या नाबालिग या फ़ासिक़ के साथ नहीं जा सकती आज़ाद या मुस्लमान होना शर्त नहीं, अलबत्ता मजूसी जिसके एतिक़ाद में महारिम से निकाह जाइज़ है उसके साथ सफर नहीं कर सकती, मुराहिक व मुराहिका यानि लड़का या लड़की जो बालिग़ होने के क़रीब क़रीब हों वो बालिग़ के हुक्म में हैं यानि मुराहिक के साथ जा सकती है और मुराहिका को भी बगैर मेहरम या शोहर के सफर की मुमानिअत है | (जोहरा, आलमगीरी, दुर्रे मुख़्तार)
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नोट :- इमामे आज़म अबू हनीफा रदियल्लाहु अन्हु और इमाम, अबू युसूफ रहमतुल्लाह अलैह से औरत को बगैर शोहर के या मेहरम के साथ एक दिन का सफर करने की कराहियत भी मरवी है फितना फसाद के ज़माने की वजह से इसी क़ौल एक दिन पर फतवा देना चाहिए | आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खान अलैहिर्रहमतुर रहमान फरमाते हैं: औरत को बगैर शोहर या मेहरम के साथ लिए सफर को जाना हराम है इसमें कुछ हज की खुसूसियत नहीं, कहीं एक दिन के रास्ते पर बगैर शोहर या मेहरम जाएगी तो गुनहगार होगी | (फतावा रजविया जिल्द अव्वल)
बहारे शरीअत :- हिस्सा 4 नमाज़े मुसाफिर का बयान साफा नंबर 101 पर है “के औरत को बगैर मेहरम के तीन दिन या ज़्यादा की राह जाना, नाजाइज़ है बल्कि एक दिन की राह भी जाना,
मसअला :- औरत का गुलाम उसका मेहरम नहीं के उसके साथ निकाह की हुरमत हमेशा के लिए नहीं के अगर आज़ाद कर दे तो उससे निकाह कर सकती है | (जोहरा)
मसअला :- बांदियों को बगैर मेहरम के सफर जाइज़ है | (जोहरा)
मसअला :- अगरचे ज़िना से भी हुरमाते निकाह साबित होती है, मसलन जिस औरत से माज़ अल्लाह ज़िना क्या गया उसकी लड़की से निकाह नहीं कर सकता, मगर उस लड़की को उसके साथ सफर करना जाइज़ नहीं | (रद्दुल मुहतार)
मसअला :- औरत बगैर मेहरम या शोहर के हज को गई तो गुनहगार हुई, मगर हज करेगी तो हज हो जाएगा यानि फ़र्ज़ अदा हो जाएगा | (जोहरा)
मसअला :- औरत के न शोहर है न मेहरम तो उस पर ये वाजिब नहीं के हज के जाने के लिए निकाह कर ले और जब मेहरम है तो हज फ़र्ज़ के लिए मेहरम के साथ जाए अगरचे शोहर इजाज़त न देता हो, निफल और मन्नत का हज हो तो शोहर को माना करने का इख़्तियार है |
मसअला :- मेहरम के साथ जाए तो उसका नुफ्क़ा औरत के ज़िम्मा है लिहाज़ा अब ये शर्त है के अपने और उसके दोनों के नुफ्क़ा पर क़ादिर हो | (जोहरा,दुर्रे मुख़्तार,रद्दुल मुहतार)
(3) :- जाने के ज़माने में औरत इद्दत में न हो, वो इद्दत वफ़ात की हो या तलाक़ की, बाइन की हो या रजई की |
(4) :- क़ैद में न हो मगर जब किसी हक़ की वजह से क़ैद में हो और उसके अदा करने पर क़ादिर हो तो ये उज़्र नहीं और बादशा अगर हज के जाने से रोकता हो |
(दुर्रे मुख़्तार,रद्दुल मुहतार)
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सेहते अदा के शराइत
सेहते अदा के शराइत :- के शराइत ये हैं के हज सही अदा होना के लिए नौ 9 शर्तें हैं की वो अगर न पायी जाएं तो हज सही नहीं :
(1) इस्लाम काफिर ने हज किया तो न हुआ,
(2) एहराम, यानि बगैर एहराम के हज नहीं हो सकता,
(3) यानि हज के लिए जो ज़माना मुक़र्रर है उससे पहले हज के काम नहीं हो सकते, मसलन तवाफ़े क़ुदूम व सई के हज के महीनो से पहले नहीं हो सकते और वक़ूफ़े अरफ़ा नवी के ज़वाल से पहले या दसवीं की सुबह होने के बाद नहीं हो सकता और तवाफ़े ज़्यारत दसवीं से पहले नहीं हो सकता,
(4) मकान तवाफ़ की जगह मस्जिदुल हराम शरीफ और वुक़ूफ़ के लिए अरफ़ात व मुज़दलफा, कंकरी मारने के लिए मिना, क़ुरबानी के लिए हरम, यानि जिस फेल के लिए जो जगह मुक़र्रर है वो वहीँ होगा |
(5) “तमीज़”
(6) “अक़्ल” जिसमे तमीज़ न हो जैसे न समझ बच्चा या जिसमे अक़्ल न हो जैसे मजनून ये खुद हज के काम नहीं कर सकते जिन में नियत की ज़रुरत है, मसलन एहराम या तवाफ़, बल्कि उनकी तरफ से कोई और करे और जिस फेल में नियत शर्त नहीं, जैसे वुक़ूफ़े अरफ़ा वो ये खुद कर सकते हैं |
(7) फ़राइज़ हज का बजा लाना मगर जब के उज़्र हो |
(8) एहराम के बाद और वुक़ूफ़ से पहले जिमा न होना अगर होगा तो हज बातिल हो जाएगा |
(9) जिस साल एहराम बांधा उसी साल हज करना, लिहाज़ा उस साल अगर हज फौत हो गया तो उमराह कर के एहराम खोल्दे और साले आइन्दा यानि आने वाले साल नए एहराम से हज करे और अगर एहराम न खोला बल्कि उसी एहराम से हज किया तो हज न हुआ |
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हज फ़र्ज़ अदा होने के लिए शर्त
हज फ़र्ज़ अदा होने के लिए 9 नौ शर्तें हैं:
(1) इस्लाम |
(2) मरते वक़्त तक इस्लाम ही पर रहना |
(3) आक़िल होना |
(4) बालिग होना |
(5) आज़ाद होना |
(6) अगर क़ादिर हो तो खुद अदा करना |
(7) निफ़्ल की नियत न होना |
(8) दुसरे की तरफ से हज करने की नियत न हो |
(9) फ़ासिद न करना | इसमें हमने बहुत बातों की तफ्सील बयान की है और बाक़ी हम पार्ट तीन में बयान करेंगें |
(बहारे शरीअत छटा हिस्सा जिल्द अव्वल, क़ानूने शरीअत दूसरा हिस्सा)
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